सीढियाँ
अजीब सी कहानी है ,
कहीं मध्य में जाकर जैसे ही समझ सी आने लगती है,
एक नया मोड़ आ जाता है।
रास्ते बदल जाते हैं, पुराने किरदार नए भेष में फिर से सामने आते है,
सीढियां गोल हैं, सब चढ़ रहे हैं,
होड़ लगी है कहीं जाने की, किसी को पहले माले पर जाना है,
तो किसी को सबसे ऊपर वाले।
बीच बीच में सब एक दुसरे से दुबारा मिलते हैं,
कोई ख़ुशी से मिलता है, कोई भारी मन से,
कोई रंजिश में है, कोई अपने किये पर पछता रहा है,
कोई आगे है किसी से, तो कोई अपनी जगह पर पहुँच कर भी निराश,
कहानी ऐसे ही आगे बढ़ रही है ,
सब चल रहे हैं कोई तेज़ कोई धीरे।
जाना कहाँ हैं किसी को नहीं पता, और जिनको अंदाजा है,
वो वहां पहुँच कर भी कुछ ढूंढ रहे हैं,
पर क्या यह मालूम नहीं,
जो पास है उसे ढूंढना कैसा,
ढूंढो उसे जिसे तुम पहचान नहीं पा रहे,
जो किसी रास्ते पर चलने से नहीं ,
अपने भीतर ही मिलेगा,
ज़रा झाँक कर देखो
एक रौशनी दिखाई देगी,
और इन अनगिनत ना खत्म होने वाली सीढ़ियों पर,
उजाला हो जाएगा।
कोशिश तो करो खुद को रोशन करने की ,
वर्ना ये कहानी यूँ ही चलती रहेगी अनंत तक,
आता रहेगा, फिर इक नया मोड़ और इंतज़ार रहेगा फिर से उसके बीत जाने का।
वंदना शर्मा