हेलो जिंदगी,
अजीब हठी हो तुम, जैसा सोचो वैसा करती करती ही नहीं,
कुछ और ही होता है तुम्हारे मन में,
जब सोचो समुन्दर तो तुम पंहुचा देती हो खुले मैदान में
जब हो किसी की तलाश तब तुम कर देती हो अकेला,
और जब अकेला रहना आता है तो तुम मिला देती हो उस से,
जब मिल jaaye तो, कोशिशों में लग जाती हो की कैसे अलग करूँ,
ऐसा क्यों करती हो तुम,सिर्फ अपने हिसाब से चलना क्या सिर्फ तुम्हे ही अच्छा लगता है?
जब दिल ना सोचना चाहे तब भी तुम अपने खेल खेलती हो,
डाल देती हो ऐसे परिस्थितियों में की दिल और दिमाग बस दौड़ने लगता है,
जब दिल कहीं ठहरना चाहे तुम उफान ला देती हो, और फिर जब आ जाता है
तूफानों को झेलना तब तुम शांत तालाब बन जाती हो,
अच्छा ये बताओ, जो तुम्हारे मन में है वो दिखाए क्यों नहीं देता,
या तुम ऐसा इसलिए करती हो सीधी राहों पर चलकर हम आलसी न बन जाएँ,
पर फिर भी तुम ऐसा मत किया करो,
ऐसा भी नहीं तुम गलत हो,
पर कभी कभी खुद के फैसले अच्छे लगते हैं,
उन रास्तों पर ठहरना अच्छा लगता है,
जहाँ छाया, ठंडी हवा और उसका साथ होता है,
कभी कभी तुम रोक दिया करो अपने खेल
चलने दिया करो हमें अपने पैरों पर, मत उड़ाया करो आंधियां,
कर दिया करो बारिश उन दिनों जब ज़रुरत हो,
भीगा दिया करो ताकि सारे गिले-शिकवे जो तुमसे हैं,
धुल जाएँ और महसूस हो मिटटी की सोंधी खुशबु।
~ वंदना ~