गीत
कभी था पूर्णिमा से बेहद प्यार मुझे,
अब आमावस की रात यूँ भाने लगी है।
रोशनी में नहीं दिखते थे जो चेहरे
अँधेरे में वे अब जगमगाने लगे हैं,
उम्मीदों के पंख भी खुलने लगे हैं
मन के जुगनू अब टिमटिमाने लगे हैं,
दबी थी जो खुशियाँ वे मचलने लगी हैं
अब आमावस की रात यूँ भाने लगी है।
कभी चौंध जाती थी उजालों में आँखें
चुटकी सी रोशनी रस्ते दिखाने लगी है
अब आमावस की रात यूँ भाने लगी है।