सच
सच से सामना होता है कई बार
जब खड़ी होती हूँ फुटपाथ पर ,
देखती हूँ, फटेहाल भीख मांगते बच्चे
वहीं साथ खड़ी तन को ढकने की कोशिश करती उनकी माएं ,
और उनके कंकाल शरीर को अन्दर तक भेदती अनजानी निगाहें।
सच सामने आता है तब
जब सड़क पर पड़ी लाश, चलती गाड़ियों के नीचे,
चिपक जाती है,
टायरों व चारकोल की जमीन से,
जैसे स्वतः ही कोशिश करती हो उसमें समाने की।
कुछ ऐसा ही है समाज का सच भी ,
भीतर बाहर के अन्तद्र्वन्द्व का सच,
बीमार मानसिकता व दूसरे को कुचल आगे निकलने का सच,
झूठ की अंगुली थाम चलने का सच।
सच कभी नहीं छुपता,
बार-बार सामने आता है।
क्योंकि, हम सब उसी सच का हिस्सा हैं
कि सच कुछ नहीं
बस, अब कहने सुनने का एक किस्सा है।